🌷 ब्रह्मचर्य 🌷
कामवासना को उत्तेजित करने वाले खान-पान, दृश्य-श्रव्य एवं श्रृंगारादि का परित्याग कर सतत वीर्य-रक्षा करते हुए ऊर्ध्वरेता होना ब्रह्मचर्य कहलाता है।अष्टविध मैथुन-वासना की दृष्टि से किसी का दर्शन, स्पर्शन, एकान्त-सेवन, भाषण, विषय-कथा, परस्पर क्रीड़ा, विषय का ध्यान तथा संग आठ प्रकार के मैथुन हैं। ब्रह्मचारी को इनसे बचते हुए सदा जितेन्द्रिय होकर अपनी समस्त इन्द्रियों आँख, कान, नाक, त्वचा एवं रसना को सदा शुभ की ओर प्रेरित करना चाहिए तथा मन में सदा भद्र, सुविचार, शिव-संकल्प रखना चाहिए। साधक को सदा ही अपने मन में इस विचार को दृढ़ रखना चाहिए कि मेरी स्वाभाविक अवस्था विकार-रहित है। जैसे जल का स्वाभाविक गुण, शीतलता एवं द्रवत्व (बहना) है। जमना, गर्म होना, बाष्प बनना तथा बाष्प बनकर उड़ना ये गुण उसके स्वाभाविक नहीं होते तथा गर्म करने, वाष्प बनने तथा बर्फ बनने पर ठोस हो जाने के बाद भी वह अपनी स्वाभाविक अवस्था में ही वापस लौट आता है, इसी तरह ब्रह्मचर्य हमारी स्वाभाविक अवस्था है। कभी शान्त एकान्त स्थान पर बैठकर चिन्तन करना और अपने भीतर यह देखना, कहीं वासना है क्या? क्या आप में काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार आदि विकार हैं? तो आप पायेंगे कि आपमें ये विकार हैं ही नहीं। इन विकारों को तो आमन्त्रित कर पैदा किया जाता है। ये विकार चोरों की तरह हमारे शरीर में आते हैं एवं थोड़ी ही देर ठहरते हैं तथा उतनी ही देर में हमारे शरीर, मन एवं आत्मा की शक्ति को लूटकर, विकृत करके, सब कुछ बिगाड़ करके भाग जाते हैं। काम तथा क्रोध थोड़ी देर के लिए आते हैं तथा थोड़ी ही देर में ये विकार हमारे शरीर को हिलाकर रख देते हैं, शरीर को शक्तिहीन एवं ओजोहीन तथा निस्तेज कर देते हैं, शरीर में जहर घोल देते हैं। हम बार-बार लूटते हैं और कहते रहते हैं कि इनसे लुटना तो स्वाभाविक है। हम बच नहीं सकते। तो फिर भाई आपको कोई बचा नहीं सकता। उठो, जागो। और अपने स्वाभाविक धर्म (स्वधर्म) को पहचानो। विकार आपके स्वधर्म नहीं, ये परधर्म हैं और गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं *’स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।’* काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार आदि विकारों की भट्ठी में अब अपने-आपको और अधिक नहीं जलाओ। आप आत्मा हैं, आपके स्वाभाविक गुण हैं मैत्री, करुणा, प्रेम, सहानुभूति, सेवा, समर्पण, परोपकार, आनन्द एवं शान्ति। आप निर्विकार हैं, विकारों को तो हम बुलाते हैं, आमन्त्रित करते हैं, ऐसे ही जैसे कि कोई धन-सम्पत्ति एवं वैभव को संचित करे और फिर चोरों को आमन्त्रित कर दे और फिर जब चोर हमारे ही मकान, भूमि एवं भवन में कब्जा करके बैठ जाएँ, सब सम्पत्ति लूट लें और हम ठगे-से खड़े रहकर देखते रहें और कहें कि हाय! यह सब क्या हुआ! मैंने तो इन्हें क्या बुलाया कि ये तो मेरा ही सब कुछ लूट रहे हैं, सब बरबाद कर रहे हैं। लेकिन मनुष्य बाहर की सम्पत्ति को लुटाने के लिए तो चोरों को निमन्त्रण नहीं देता; क्योंकि यह सम्पत्ति एवं वैभव वह खुद इकट्ठा करता है उसको वह लुटता हुआ नहीं देख सकता। परन्तु मनुष्य! जरा विचार कर, तेरे भीतर असीम आनन्द, शान्ति, अपार सुख, शक्ति, ओज, तेज, बल, बुद्धि, पराक्रम, मैत्री, करुणा, मुदिता आदि अनन्त ऐश्वर्य हैं, जो तेरे प्रभु ने तुझे दिया है, उसे काम, क्रोध आदि विकार एवं वासना रूपी चोरों को बार-बार बुलाकर बार-बार क्यों लुटाता है और कहता है कि यह तो स्वाभाविक ही है, मैं इसमें क्या करूं? अब तो सँभलो और अपने-आपको पहचानो, भगवान् की दी हुई शक्ति को पहचानो। इस सुविचार शिव-संकल्प को अपने भीतर दृढ़ कर लो कि मैं निर्विकार हूँ, ब्रह्मचर्य मेरा स्वधर्म है, ब्रह्मचारी रहना स्वाभाविक है और निश्चित जानो कि विकारों के अस्वाभाविक एवं अल्पकालीन उफान एवं प्रवाह के बाद आपको निर्विकार स्थिति में ही जीवन जीना होता है। अतः अब अपने-आपको विकारों की अग्नि में और अधिक न जलाओ। भगवान की दी हुई दिव्य शक्तियों से सम्पन्न होकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए असीम शान्ति एवं अपरिमित आनन्द और अपार-अथाह सुख को अपने भीतर से प्राप्त करो। ब्रह्मचर्य का पालन करके ओजस्वी, तेजस्वी, बुद्धिमान, बलवान एवं पराक्रमी बनकर सबसे दिव्य प्रेम करते हुए सेवा, परोपकार एवं करुणा आदि से अपने जीवन को सुन्दर बनाओ। योग-साधना के पथ पर चलो, तभी अपने-आपको तथा अपने ही भीतर विराजमान सच्चिदानन्द-स्वरूप प्रभु को जान तथा पहचान पाओगे। यही जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य है।