वास्तुदेव की तीन विशेषताएं होती हैं : –
चर वास्तु : इसमें वास्तु पुरुष की नजर या रुख भाद्रपद ( अगस्त, सितम्बर ), आश्विन तथा
कार्तिक ( अक्टूबर , नवम्बर ) महीनों के अवधि में दक्षिण की ओर होता है | तथा मार्गशीर्ष (नवम्बर-
दिसंबर ), पौष ( दिसंबर – जनवरी ), और माघ (जनवरी-फरवरी ) महीनों में पश्चिम की ओर होता है |
फाल्गुन (फरवरी – मार्च ), चैत्र (मार्च – अप्रैल ), और वैशाख (अप्रैल – मई ) महीनों में उत्तर की ओर
होता है | ज्येष्ठ (मई – जून ), आषाढ़ (जून – जुलाई ), तथा श्रावण (जुलाई – अगस्त ) महीनों की अवधि
में पूर्व की ओर होता है |
निर्माण कार्य का आरम्भ या शिलान्यास और मुख्य द्वार की स्थापना ऐसे स्थान पर होनी चाहिए जो
वास्तुपुरुष की दृष्टी या नजर की ओर हो , ताकि मनुष्य उस मकान में शान्ति और सुख से रह सके |
स्थिर वास्तु : वास्तु पुरुष का सिर सदैव उत्तर-पूर्व की ओर तथा पैर दक्षिण – पश्चिम की ओर , दाहिना
हाथ उत्तर-पश्चिम की ओर एवं बांया हाथ दक्षिण – पूर्व की ओर रहता है इस बात को ध्यान में रखते हुए
मकान का डिजाइन एवं प्लान बनाना चाहिए |
नित्य वास्तु : प्रत्येक दिन वास्तु पुरुष की नजर सुबह प्रथम तीन घंटे पूर्व की ओर , इसके पश्चात
तीन घंटे दक्षिण की ओर तथा उसके बाद तीन घंटे पश्चिम की ओर तथा अंतिम तीन घंटे उत्तर की ओर
दृष्टी अथवा नजर रहती है | भवन का निर्माण कार्य इसी प्रकार समयानुसार करना चाहिए | वास्तु
पुरुष की तीन अवसरों पर पूजा अर्चना करनी चाहिये निर्माण कार्य में शिलान्यास करते समय ,
दूसरी बार मुख्य द्ववार लगाते समय , तीसरी बार गृह प्रवेश के समय पूजा करनी चाहिये | गृह प्रवेश
उस समय होना चाहिये जब वास्तुपुरुष की नजर उस ओर हो ये शुभ रहता है |
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