वास्तु शिल्प शास्त्र  :-   वास्तुशिल्प शास्त्र दो भागों में विभाजित किया गया है ,
१. देवशिल्प : मूर्ति, यज्ञ, यज्ञकुंड,धार्मिक कार्यों आदि और मंदिरों के सभी पहलुओं एवं तकनीक से सम्बन्ध रखता है|
२. मानवशिल्प  :  मकानों , आवासीय भवनों , स्कूलों , धर्मशालाओं , होटलों, कार्य स्थानों , उधोगों, आदि से सम्बंधित है|
         वास्तुकला के वैदिक विज्ञान का आदर्श भवन निम्न पांच मूल  सिद्धांतों पर आधारित  है :
१. दिक् निर्णय :  दिशाओं का सिद्धांत | इसे एक तकनीकी प्रक्रिया द्वारा किया जाता है  जिसे शंकु स्थापना कहते हैं| इसकी स्थापना वास्तुपुरुष की नाभि बिंदु अर्थार्त  भूखंड के मध्य बिंदु  पर करनी चाहिये| शंकु  अथवा पिरामिड  वह है जिससे भवन की दिशाओं के आधारभूत बिन्दुओं का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, शंकु विशेष प्रकार की लकड़ियों से बनाया जाता है  एवं अलग – अलग  माप का बनाया जाता है| यह एक तकनीकी प्रक्रिया है जिसको एक विद्वान्  वास्तुकार द्वारा ही करवाना चाहिए |
२. वास्तु-पद-विन्यास  :  निर्माण – स्थल  योजना और वास्तु पुरुष मंडल | वास्तु का मतलब चारों ओर की परिस्तिथियों या परिवेश, पदार्थ अथवा प्रकृति से है| पुरुष का मतलब ऊर्जा, कार्यशक्ति, बल आत्मा  तथा शक्ति से है| मंडल का मतलब गृह, नक्षत्रों की स्तिथि, जो दिशा निर्धारण से सम्बंधित होती है  से है| भवन या मंदिर के निर्माण स्थल का मानचित्र वास्तव में वास्तुपुरुष मंडल  ही होता है जो की वैदिक भवन की आध्यात्मक परियोजना है, यह भवन की बौद्धिक नींव है| मंडल से युक्त वास्तुपुरुष की कल्पना मूर्ति पुरुष के आकार से मिलती जुलती खींची जाती है| वास्तुपुरुष का सिर उत्तर – पूर्व दिशा में ६४ वें मंडल से प्रारम्भ हो जाता है, उसके पैर दक्षिण-पश्चिम में, दाहिना हाथ उत्तर-पश्चिम में होता है, बांया हाथ दक्षिण-पूर्व में और शरीर के और अंग अन्य वर्गों में होते हैं| वास्तु पुरुष का शरीर ४५ देवताओं से निर्मित होता है| ६४, ८१, या अन्य किसी भी संख्या के मंडल में देवताओं की संख्या उतनी ही ४५ ही रहती है| परिरूप या प्लान में  देवताओं को दिए गए विस्तार में भिन्नता हो जाती है| परन्तु उनकी सापेक्ष स्तिथि में नहीं| ब्रहम्मांड के देवता ब्रह्मा  सदैव केंद्र स्थान में रहते हैं, पूरे निर्माण स्थल का प्रमुख देवता वास्तुपुरुष होता है|उत्तर की दिशा धन के देवता  कुबेर की मानी जाती है, दक्षिण दिशा मृत्यु के देवता यम की मानी जाती है, पूर्व दिशा सूर्य देव की मानी जाती है, पश्चिम दिशा वायु के देवता  वरुण की मानी जाती है, एवं भवन के मध्य में आँगन या खाली स्थान होना चाहिये|
३. मान : हस्त लक्षण  :  भवन की आनुपातिक माप|सभी रचनात्मक गतिविधियों में चाहे वह वास्तुकला हो या मूर्तिकला हो एक निश्चित नाप का पालन करना आवश्यक होता है, इसके बिना शुभ परिणाम नहीं मिल सकते हैं, नाप निम्नलिखित में विभाजित है  :
  १.  मान  — ऊँचाई की नाप  २. प्रमाण  — चौड़ाई की नाप  ३.  परिमाण  —  परिधि या घेरे की नाप ४.  लम्बमान  —  साहुल रेखा की लम्बाई की नाप  ५.  उनमान —  मोटाई की नाप ६.  उपमान  — अंतर्स्थान  या बीच की जगह की नाप .
ऊंचाई के अनुपात के  निम्नलिखित  तकनीकी नाप हैं : १. शान्तिका — इसका अर्थ है शांतिपूर्ण,
इसके अंतर्गत  ऊंचाई , चौड़ाई  के बराबर होती है | २. पौष्टिक  — इसका अर्थ है मजबूत, सम्पूर्ण, इसमें ऊंचाई,चौड़ाई से १,२५ गुनी होती है,जिससे भवन को अच्छी मजबूती मिलती है|
३. जयदा —-  इसका अर्थ है प्रसन्नतादायक, इसमें ऊंचाई, चौड़ाई से १.५ गुनी  होती है जो भवन को प्रसन्नतादायक रूप प्रदान करती है | ४.सर्वकामिका — इसका अर्थ होता है सम्पन्नता देने वाला, इसमें ऊंचाई, चौड़ाई से १.७५ गुनी होती है, जिससे भवन मजबूत और सुन्दर बनता है| 
५. अदभुत —— इसका अर्थ चमत्कारिक होता है, इसमें ऊंचाई, चौड़ाई से दुगनी होती है जिससे भवन को चमत्कारिक रूप मिलता है|भवन का निर्माण जब आनुपातिक नाप के अनुसार होता है तब वह भवन देवताओं की पूजा करने योग्य हो जाता है, और वह भवन देवताओं का आवास बन जाता है|
४. आयादि – सद्वर्ग :  वैदिक वास्तुकला के छः सिद्धांत| समरांगन सूत्रधार के अनुसार आयादि छः सूत्रों का एक समूह है, जिनके नाम हैं : आय  : (आय का मतलब लम्बाई * चौड़ाई  = क्षेत्रफल  होता है 
आय आठ प्रकार की होती हैं १. ध्वजाय  २. धुम्राय  ३. सिंहाय, ४. श्वानाय  ५. वृषभाय  ६.  खराय  ७.  गजाय  ८.  काकाय ),  व्यय : व्यय  तीन समूहों  – पिशाच , राक्षस , और यक्षों का प्रतिनिधित्व करती है | इसी प्रकार अंश भी तीन प्रकार के होते हैं : इन्द्र , यम , और राजा |   रक्सा ,  योनि  : रक्सा  और तारा नौ – नौ  प्रकार के तीन समूहों में विभाजित की गई हैं : सुर गण, राक्षस गण, तथा मानुश गण, इस प्रकार ये २७ ताराएँ हैं| वार :  वार  सात होते हैं, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार |  तिथि  :  तिथि १५  होती हैं  एवं अमावश्या व् पूर्णिमा इस प्रकार १६ तिथियाँ होती हैं | इनके द्वारा सरंचना की परिधि की पुष्टि होनी चाहिए| किसी भी भवन के छः मुख्य भाग होते हैं :  अधिष्ठान  अथवा आधार  या नींव, पद  या स्तम्भ, प्रस्तार, कर्ण या पार्श्व, शिखर या छत, और स्तूप, | वास्तु की शाखा के अंतर्गत भवन निर्माण और परिरूप बनाते समय अन्य  पहलुओं पर भी विचार करना चाहिए ये हैं : १. शेष धन, २. शेष ऋण, ३. शेष तिथि,  ४. शेष वार,  ५. शेष नक्षत्र, ६.  शेष योग,  ७.  शेष कर्ण  ८.  शेष अंश, ९.  शेष आयुष्य,  १०. शेष दिकपालक  और  इनमें से  पांच या अधिक शुभ संख्याएँ  होती हैं| 
५. पताका आदि – सच्छंद :  भवन का स्वरुप, उसकी  अभिमुखता और परिदृश्य आदि | भवन की संरचना पक्ष छंद है, इसकी लयात्मक स्तिथि काव्य की तरह होती है|लय यथार्थ को जगाती है एवं नाप उसका निर्माण करती है, छंद का मतलब रूपरेखा से है, ये छंद छः प्रकार के होते हैं|
१.  मेरु  :  आकार में यह पृथ्वी के मेरु पर्वत की भांति होता है, जिसका केंद्रीय शिखर भूमि की सतह से काफी ऊंचा उठा होता है और चारों ओर से सरल क्रम में धीरे – धीरे ढालू होता जाता  है |
२. खंड मेरु  :  खंड मेरु में बाहरी परिधि के वृत्तीय छोरों से पूरा वृत  या घेरा नहीं बनता है अर्थार्त यह इस प्रकार का होता है मनो खंड मेरु को सीधा आकार में काट दिया गया हो और बाहर निकली हुई सतह को एक सीढ़ी ढालुदार चट्टान के रूप में छोड़ दिया गया हो|
   ३.  पताका छंद : यह एक झंडे या पताका के दंड से पताका को फहराया जा रहा हो, भवन के बाहर से वह दो मंजिला संरंचना  लगाती है , जबकि वह वास्तव में एक मंजिला मकान होता है|
४. सूचि  छंद :  इसकी  आकृति एक सुई की तरह की होती है, किन्तु उडिस्ता और नस्ट छंद अपने में स्वतंत्र  नहीं होते और कोई परिपेक्ष्य द्रश्य प्रस्तुत नहीं करते हैं |
        ऊंचाई के अनुपात के  निम्नलिखित  तकनीकी नाप हैं :  १. शान्तिका  — इसका अर्थ है शांतिपूर्ण, इसके अंतर्गत  ऊंचाई, चौड़ाई  के बराबर होती है |  २.  पौष्टिक  — इसका अर्थ है मजबूत, सम्पूर्ण, इसमें ऊंचाई, चौड़ाई से १,२५ गुनी होती है, जिससे भवन को अच्छी मजबूती मिलती है| ३. जयदा — इसका अर्थ है प्रसन्नतादायक, इसमें ऊंचाई, चौड़ाई से १.५ गुनी  होती है  जो भवन को प्रसन्नतादायक रूप प्रदान करती है| ४. सर्वकामिका — इसका अर्थ होता है सम्पन्नता देने वाला, इसमें ऊंचाई, चौड़ाई से १.७५ गुनी होती है, जिससे भवन मजबूत और सुन्दर बनता है| ५. अदभुत — इसका अर्थ चमत्कारिक होता है, इसमें  ऊंचाई, चौड़ाई से दुगनी होती है जिससे भवन को चमत्कारिक रूप मिलाता है| भवन का निर्माण जब आनुपातिक नाप के अनुसार होता है तब वह भवन देवताओं की पूजा करने योग्य हो जाता है, और वह भवन देवताओं का आवास बन जाता है|४. आयादि – सद्वर्ग :वैदिक वास्तुकला के छः सिद्धांत| समरांगन सूत्रधार के अनुसार आयादि छः सूत्रों का एक समूह है, जिनके नाम हैं : आय  : (आय का मतलब लम्बाई * चौड़ाई  = क्षेत्रफल  होता है, आय आठ प्रकार की होती हैं १. ध्वजाय  २. धुम्राय  ३. सिंहाय, ४. श्वानाय  ५. वृषभाय  ६.  खराय  ७.  गजाय  ८.  काकाय ),  व्यय : व्यय  तीन समूहों  – पिशाच, राक्षस, और यक्षों का प्रतिनिधित्व करती है| इसी प्रकार अंश भी तीन प्रकार के होते हैं  : इन्द्र , यम , और राजा|   रक्सा ,  योनि  : रक्सा  और तारा नौ – नौ  प्रकार के तीन समूहों में विभाजित की गई हैं  : सुर गण, राक्षस गण, तथा मानुश गण, इस प्रकार ये २७ ताराएँ हैं| वार :  वार  सात  होते हैं  सोमवार, मंगलवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार, शनिवार, रविवार |  तिथि  :  तिथि १५  होती हैं  एवं अमावश्या  व् पूर्णिमा  इस प्रकार १६ तिथियाँ होती हैं |  इनके द्वारा सरंचना की परिधि की पुष्टि होनी चाहिए | किसी भी भवन के छः मुख्य भाग होते हैं  :  अधिष्ठान  अथवा आधार  या नींव , पद  या स्तम्भ, प्रस्तार, कर्ण या पार्श्व,  शिखर या
छत, और स्तूप, | वास्तु की शाखा के अंतर्गत भवन निर्माण और परिरूप  बनाते समय अन्य  पहलुओं पर भी विचार करना चाहिए  ये हैं : १. शेष धन , २. शेष ऋण , ३. शेष तिथि ,  ४. शेष वार,  ५. शेष नक्षत्र, ६.  शेष योग,  ७.  शेष कर्ण  ८.  शेष अंश, ९.  शेष आयुष्य,  १०. शेष दिकपालक  और  इनमें से  पांच या अधिक शुभ संख्याएँ  होती हैं | 
५. पताका आदि – सच्छंद :  भवन का स्वरुप , उसकी  अभिमुखता और परिदृश्य  आदि | भवन की संरचना पक्ष छंद है , इसकी लयात्मक स्तिथि काव्य की तरह होती है |लय यथार्थ को जगाती है एवं नाप उसका निर्माण करती है , छंद का मतलब रूपरेखा से है , ये छंद छः प्रकार के होते हैं |
१.  मेरु  :  आकार में यह पृथ्वी के मेरु पर्वत की भांति होता है , जिसका केंद्रीय शिखर भूमि की सतह से काफी ऊंचा  उठा होता है  और चारों ओर से सरल क्रम  में धीरे – धीरे ढालू होता जाता  है |
२. खंड मेरु  :  खंड मेरु में बाहरी परिधि के वृत्तीय  छोरों से पूरा वृत  या घेरा नहीं बनता है अर्थार्त यह इस प्रकार का होता है  मनो खंड मेरु को सीधा  आकार में काट दिया गया हो और बाहर निकली हुई सतह को एक सीढ़ी ढालुदार  चट्टान  के रूप में छोड़ दिया गया हो |
   ३.  पताका छंद : यह एक झंडे या पताका  के दंड से पताका को फहराया जा रहा हो , भवन के बाहर से वह दो मंजिला संरंचना  लगाती है , जबकि वह वास्तव में  एक मंजिला मकान होता है |
४. सूचि  छंद :  इसकी  आकृति एक सुई की तरह की होती है , किन्तु उडिस्ता  और  नस्ट  छंद अपने में स्वतंत्र  नहीं होते  और कोई परिपेक्ष्य  द्रश्य प्रस्तुत  नहीं करते हैं |

.