कुण्डलिनी शक्ति
कुण्डलिनी शक्ति : कुण्डलिनी शब्द बना है कुंड से और यह कुंड है ऊर्जा का स्त्रोत , इसी से क्रियाएँ चालित होती हैं | कुंड का अर्थ ही है जहाँ ठहराव हो , जब तक शरीर का यह ब्रह्मकुंड निष्क्रिय पड़ा रहता है, तब तक मनुष्य उन गहन अनुभवों से अपरिचित ही रहता है | इस कुंड में जब किसी प्रकार से लहर उठती है, तभी कुछ संभव हो पाता है | तब उस कुंड से उठती है लहर जिसे कुण्डलिनी शक्ति कहते हैं | इसको गति शील करना साधना से ही संभव है |
कुण्डलिनी के एक – एक चक्र को जाग्रत करना बिलकुल ऐसा होता है, जैसे एक सोए हुये सर्प को छेड़ना हो | कुण्डलिनी साधना करने पर साधकों के चक्रों पर आघात होता है ध्वनि तरंगों का और मन्त्रों के ये कम्पन सीधे उस सुप्त अवस्था में पड़ी हुयी कुण्डलिनी शक्ति पर प्रहार करते हैं और कुण्डलिनी शक्ति एकदम से गतिशील होने की स्थिति में आ जाती है |
कुण्डलिनी जब सर्प की भांति जाग्रत होती है तो कभी – कभी अनिष्ट भी कर देती है , कई साधक विक्षिप्त हो जाते हैं परन्तु ऐसा तभी होता है जब जीवन में गुरु का अभाव हो | जब कुण्डलिनी का एक चक्र जाग्रत हो जाता है तो साधक को अचानक अनेकों गहन अनुभूतियाँ होने लगती हैं | कुण्डलिनी शक्ति में अनेकों प्रकार के अनुभव छिपे होते हैं , जब साधक की शक्ति जाग्रत होती है तब उसकी संवेंदन शीलता का भी विकास होता है तथा उसको अपने पूर्व जन्म की श्रंखलाओं से तारतम्य जुड़ता हुआ महसूस होता है | मनुष्य जीवन के पूर्व में भी उसने अनेकों योनियों में जन्म लिया होता है , एक सामान्य मनुष्य नहीं जानता की वृक्ष को कैसा लगता है जब कोई अन्य उसके फल को तोड़ता है क्योंकि एक सामान्य व्यक्ति का ध्यान ही नहीं जायेगा इस चीजों पर लेकिन जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी चैतन्य हो जाती है फिर वह एक वृक्ष के अनुभव को भी समझ सकता है , जिसका अनुभव उसकी कुण्डलिनी शक्ति में ही छुपा होता है | मनुष्य के शरीर के भीतर जितने अनुभव छिपे हैं उतने बाहर नहीं हैं, परन्तु उन अनुभवों का साक्षी बनने के लिए उसे भीतर की यात्रा करनी पड़ती है | जिस प्रकार बाहर एक पूरा ब्रह्माण्ड बिखरा पड़ा है , ठीक उसी का प्रतिरूप प्रत्येक मनुष्य के भीतर भी होता है | उसी ब्रह्माण्ड के यात्रा , जिसमें गहन से गहन अनुभव साधक के समक्ष उपस्थित होते हैं , इसे ही तो कुण्डलिनी यात्रा कहा गया है |
कुण्डलिनी परमेश्वर की विराट ऊर्जा है , जो सृष्टि के कण कण में व्याप्त है | यही विराट ऊर्जा प्रत्येक मनुष्य के मेरुदंड में सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती है , इस पर हमारा नियंत्रण नहीं रहता है | कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया एक भूकंप के सामान होती है जिसमें मनुष्य का व्यक्तित्व झकझोर दिया जाता है और उसके भीतर के अनेक तत्व पत्तों की भांति गिर जाते हैं | मनुष्य जिस अहं की भावना करता है उसका आधार टूट जाता है |
जिस दिन कुण्डलिनी जाग्रत होती है उसी दिन स्नायु विखंडन होता है , सुषुम्ना नाडी के पथ पर कपाल के भीतर एक बिंदु होता है जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं जहाँ परमेश्वर का निवास होता है | इष्ट साक्षात्कार का सीधा अर्थ यही होता है कि व्यक्ति की आत्मा ईश्वर में विलय होने के लिए इस बिंदु तक पहुँच चुकी है |
कुण्डलिनी शक्ति के सात चक्र हमारे शरीर में स्थित हैं जो कि निम्न प्रकार से हैं :-