दोहा
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥49क ॥
जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥49ख ॥
चौपाई
अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना ॥
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा ॥
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी ॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक ॥
सुनु कपीस लंकापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा ॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति ॥
कह लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई ॥
दोहा
प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि ॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥50 ॥
चौपाई
सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।
मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा ॥
नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा ॥
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा ॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई ॥
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई ॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए ॥
दोहा
सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51 ॥
चौपाई
प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने ॥
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अंग भंग करि पठवहु निसिचर ॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए ॥
बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे ॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना ॥
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए ॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती ॥
दोहा
कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥52 ॥
चौपाई
तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा ॥
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए ॥
बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता ॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी ॥
करत राज लंका सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी ॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई ॥
जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा ॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी ॥
दोहा
की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53 ॥
चौपाई
रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना ॥
श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे ॥
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें ॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा ॥
पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई ॥
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी ॥
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा ॥
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला ॥
दोहा
द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥54 ॥
चौपाई
ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना ॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं ॥
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर। पदुम अठारह जूथप बंदर ॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं ॥
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा ॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला ॥
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा ॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका ॥
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