दोहा
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31 ॥
चौपाई
सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना ॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही ॥
कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई ॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी ॥
सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा ॥
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं ॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता ॥
दोहा
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥32 ॥
चौपाई
बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा ॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा ॥
सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर ॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा ॥
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना ॥
साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई ॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
दोहा
ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33 ॥
चौपाई
नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी ॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी ॥
उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना ॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा ॥
सुनि प्रभु बचन कहहिं कपि बृंदा। जय जय जय कृपाल सुखकंदा ॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा ॥
अब बिलंबु केह कारन कीजे। तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे ॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी ॥
दोहा
कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34 ॥
चौपाई :
प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा ॥
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना ॥
राम कृपा बल पाइ कपिंदा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा ॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना ॥
जासु सकल मंगलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती ॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं ॥
जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई ॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा ॥
नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी ॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं ॥
छंद
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई ॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी ॥
दोहा
एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35 ॥
चौपाई
उहाँ निसाचर रहहिं ससंका। जब तें जारि गयउ कपि लंका ॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1 ॥
जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई ॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी ॥
रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी ॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू ॥
समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी ॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई ॥
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई ॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें ॥
दोहा
राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36 ॥
चौपाई
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी ॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा ॥
जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई ॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा ॥
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई ॥
फमंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता ॥
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिंधु पार सेना सब आई ॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू ॥
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं ॥
दोहा
सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥37 ॥
चौपाई
सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई ॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा ॥
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन ॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता ॥
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना ॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं ॥
चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई ॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ ॥
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