दोहा
हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥25 ॥
चौपाई
देह बिसाल परम हरुआई। मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई ॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला ॥
तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा ॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई ॥
साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा ॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं ॥
ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा ॥
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी ॥
दोहा
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥26 ॥
चौपाई
मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा ॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ ॥
कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा ॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ सम संकट भारी ॥
तात सक्रसुत कथा सनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु ॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा ॥
कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना ॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती ॥
दोहा
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥27 ॥
चौपाई
चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी ॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा ॥
हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा ॥
मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी ॥
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा ॥
तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए ॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे ॥
दोहा
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28 ॥
चौपाई
जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि काई ॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा ॥
आइ सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा ॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी ॥
नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना ॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ ॥
राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा ॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई ॥
दोहा
प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज ॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29 ॥
चौपाई
जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया ॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर ॥
सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर ॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू ॥
नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी ॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए ॥
सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए ॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की ॥
दोहा
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30 ॥
चौपाई
चलत मोहि चूड़ामनि दीन्हीं। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही ॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी ॥
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना ॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी ॥
अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना ॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा ॥
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिं सरीरा ॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी ॥
सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिं कहें भलि दीनदयाला ॥