दोहा
कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि ।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥18 ॥
चौपाई
सुनि सुत बध लंकेस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना ॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही ॥
चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा ॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा ॥
अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा ॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा ॥
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा ॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई ॥
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया ॥
दोहा
ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥19 ॥
चौपाई
ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु संघारा ॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ ॥
जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी ॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा ॥
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए ॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई ॥
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता ॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका ॥
दोहा
कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥20 ॥
चौपाई
कह लंकेस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा ॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा ॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया ॥
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा ॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन ॥
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता ॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा ॥
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली ॥
दोहा
जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥21 ॥
चौपाई
जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई ॥
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा ॥
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा ॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी ॥
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे ॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा ॥
बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी ॥
जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई ॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै ॥
दोहा
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥22 ॥
चौपाई
राम चरन पंकज उर धरहू। लंका अचल राजु तुम्ह करहू ॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका ॥
राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा ॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी ॥
राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई ॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं ॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी ॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही ॥
दोहा
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥23 ॥
चौपाई
जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी ॥
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी ॥
मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही ॥
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ॥
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना ॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए ॥
नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता ॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई ॥
सुनत बिहसि बोला दसकंधर। अंग भंग करि पठइअ बंदर ॥
दोहा
कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥24 ॥
चौपाई
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि ॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई ॥
बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना ॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना ॥
रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला ॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी ॥
बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी ॥
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघुरूप तुरंता ॥
निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं ॥