कुण्डलिनी शक्ति :- सहस्त्रार चक्र :
सहस्त्रार चक्र : रंग : बैंगनी , समबन्ध तत्व : आकाश , प्रभाव : आध्यात्मिकता , बीज मंत्र : ॐ | मस्तक के ऊपरी भाग में शिखा के ठीक नीचे तालू के ऊपर मस्तिष्क में ब्रह्म रंध्र में सभी गोपनीय शक्तियों का केंद्र है | इस चक्र के अधिपति ब्रह्मा अपनी महाशक्ति के साथ विराजमान हैं | यह कुण्डलिनी शक्ति का अंतिम विश्राम स्थल है | इस सहस्त्रार के भीतर शुद्ध निर्मल सम्पूर्ण चंद्रमा है जिस पर कोई धब्बा नहीं है और ऐसे चमकता है जैसे स्वच्छ आकाश में चमकता है | इसकी किरणें परम रस से स्निग्ध होकर बिखर रही हैं | इस चन्द्र मंडल के भीतर विधुत के समान सतत चमकने वाला त्रिकोण है, जिसके भीतर शून्य है. उसकी सेवा अत्यंत गुप्त रूप से सम्पूर्ण देवता करते हैं |
आहार शौच , विहार और योग धर्मज्ञों को गुप्त स्थान में करना चाहिए | शून्य स्थिति में साधक स्वयं अर्धनारीश्वर बनकर ओज को कपाल में घनीभूत करता है | तब वह स्वयं ही शिव और स्वयं ही शक्ति होता है | शून्य को बिंदु माना है |
उत्तरी शैव और शक्ति सम्प्रदायों में सदा शिव और ईश्वर को शिव तत्व और शुद्ध विधा में निमेष और उन्मेष अवस्थाओं को माना है, जिसमें निमेष को शुन्यातिशुन्य कहा है |
अत्यंत गुप्त रूप से अतिशय प्रयत्न द्वारा प्राप्त होने वाला परमानंद का मूल है जो अत्यंत सूक्ष्म और चन्द्रमा की समस्त कलाओं सहित शुद्ध रूप में प्रकाशित है | सामान्यतः माना जाता है कि बिंदु तो एक वृत्त के अन्दर शून्य है | कामकला का त्रिकोण चक्र , इसे कुण्डलिनी कहते हैं और श्वांस – प्रश्वांस का नियमन , इसे प्राणायाम कहा जाता है |
अतः में आप कुण्डलिनी रुपी परमात्मा से प्रार्थना इस प्रकार कर सकते हैं , कि हे कुण्डलिनी शक्ति मैंने तुम्हें विशेष प्रत्यक्ष रूप में देखा है , क्योंकि जब तक शरीर में किसी प्रकार की चेतना नहीं है, तब तक हम भीतर के सम्पूर्ण चक्रों को जाग्रत करने की चेष्टा नहीं कर पाते , जब तक हमें यह मार्ग ज्ञात नहीं है , तब तक यह जीवन महत्वहीन है तब तक यह जीवन एक सूखी नदी के सामान है , यह जीवन सूखे वृक्ष की तरह है |
मेरी इच्छा है कि एक लाश की तरह से जीवन का बोझ न सहूँ | मैं चाहता हूँ कि मेरा प्रत्येक रोम रोम , अणु –अणु जाग्रत हो सके , चेतनायुक्त , प्राणयुक्त हो सके और यह तभी संभव है जब आप एक शक्ति के रूप में मेरे भीतर स्थापित हो सकेंगे |