कुण्डलिनी शक्ति :- विशुद्ध चक्र :
विशुद्ध चक्र : रंग : आसमानी , सम्बन्ध तत्व : आकाश , प्रभाव : वाकपटुता , बीज मंत्र : हं | यह चक्र कंठ के पीछे और सुषुम्ना नाडी में , रीढ़ के भीतरी भाग में स्थित होता है | यह चक्र गला और फेफड़ों से मिला होता है | यह ऊर्जा का केंद्र होने के कारण अत्यधिक संवेदनशील होता है | इस चक्र के अधिपति पंचमुखी शिवशंकर महादेव हैं | कंठ में विशुद्ध चक्र नामक यज्ञ है जो मलरहित है और धूम्र आभायुक्त है | इस यज्ञ के बीज कोष में पूर्ण चन्द्र के सामान श्वेत वर्ण तथा वृत्ताकार में आकाश क्षेत्र है | वहां श्वेत वर्ण का आकाश बीज हाथी पर सवार है | उस आकाश बीज के दो हाथों में पाश और अंकुश हैं तथा शेष दो हाथ वर और अभय मुद्रा में उठे हैं | उसके मनोरम अंक में अर्धनारीश्वर रूप सदैव निवास करते हैं | देव सदाशिव श्वेताम्बर में हैं , उनका शरीर गिरिजा से जुड़ा हुआ है , वह रजत और स्वर्ण दोनों वर्ण का है | विशुद्ध चक्र में सोलह (१६) दलों की शक्तियां समाहित हैं |
दल के बीजाक्षरों से सम्बंधित उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं : –
अं : प्रथम दल के जाग्रत होने पर सरस्वती का वास होता है , व्यक्ति अथवा साधक सभी विधाओं का ज्ञानी हो जाता है |
आं : वाक् सिद्धि इस दल की विशेष उपलब्धि है |
इं : श्राप और वरदान देने की शक्ति इसी दल के जाग्रत होने से आती है |
ईं : प्रमुख शास्त्रों का ज्ञान इस दल की जाग्रति से होता है |
उं : पूर्ण प्रमाणिकता के साथ धरा प्रवाह बोलने की क्षमता इस दल में निहित होती है |
ऊं : श्रेष्ठ रचना की पराकाष्ठा इसी दल में छिपी होती है |
ऋ : संगीत और गले का सुरीलापन इस दल के जाग्रत होने से होता है |
ऋ : भगवान् शिव के तांडव से ही नृत्य की भाव भंगिमाएं निकली हैं |
ल्रं : अनेक शरीर को धारण करने की क्षमता की योग सिद्धि इसी दल का लक्षण है |
ल्रं : इच्छानुसार शरीर को छोटा या बड़ा करने की शक्ति इसी दल में होती है |
एं : शून्य में से कोई पदार्थ प्राप्त करने की क्षमता इस दल में निहित होती है |
ऐ : मनचाहे रूप में परिवर्तन की क्षमता इस दल में निहित होती है |
ओं : पूर्ण ध्यानावस्था प्राप्ति तथा भोजन, जल आदि के बिना जीवित रहने की क्षमता इस दल के लक्षण हैं |
औं : इस दल की जाग्रति होने से साधक को इच्छा मृत्यु की शक्ति मिल जाती है |
अः : समस्त भौतिक सुख साधन , धन , यश, सम्मान , आदि इस दल से प्राप्त होते हैं |
आः : इस दल की जाग्रति से साधक को सम्मोहन शक्ति प्राप्त हो जाती है |
वृषभ के ऊपर सिंहासन है, उस पर माता गौरी विराजमान हैं , जिनके दाहिनी ओर शिव हैं | शिव के पांच मुख हैं , प्रत्येक चहरे पर तीन नेत्र हैं | उनके शरीर पर भस्म इस प्रकार लगी है कि वे श्वेत चांदी के पर्वत के सामान लगते हैं | शिव व्याघ्र चर्म लपेटे हैं और सर्पों की माला उनका आभूषण है | उनके हाथों में शूल , टंक , कृपाण , वज्र, दहन , सर्प, घंटा , अंकुश, पाश, और अभय मुद्रा है | विशुद्ध चक्र की अधिष्ठात्री शक्ति साकिनी देवी को माना जाता है |
साकिनी देवी सभी पशु जनों को उन्मादित करती हुई अस्थियों में निवास करती हैं , ज्योति रूप हैं, पांचों मुखों पर तीन-तीन नेत्र शोभायमान हैं, अपने हस्त कमलों में पाश, अंकुश, पुस्तक और ज्ञान मुद्रा धारण किये हुये हैं | वह खीर पसंद करने वाली और अमृत – पान से मदोंनत है | पांचवां चक्र जाग्रत होने पर साधक का अपने सूक्ष्म शरीर से सम्पर्क स्थापित हो जाता है , सूक्ष्म शरीर के माध्यम से वह एक कण के रूप में परिवर्तित होकर किसी भी स्थान पर जाकर पुनः वापिस जा सकता है, इच्छानुसार आकार धारण कर सकता है |