कुण्डलिनी शक्ति :- मणिपुर चक्र :
मणिपुर चक्र : रंग : पीला , सम्बन्ध तत्व : अग्नि , प्रभाव : शक्ति , बीज मंत्र : रं | यह चक्र नाभि मूल, नाभि से थोडा ऊपर स्थित होता है | यह स्थल शरीर का केंद्र है , जहाँ से ऊर्जा का वितरण होता है | यह नाभि केंद्र के पास और रीढ़ की हड्डी के भीतर स्थित होता है , इसकी स्थिति मेरुदंड के भीतर समझनी चाहिए | इसके अधिपति इन्द्र हैं | कुछ विद्वान् इस चक्र में लक्ष्मी का निवास भी मानते हैं |मानव शरीर में नाभि स्थल पर इस चक्र की अवस्थिति होती है | यह अग्नि तत्व प्रधान चक्र है, जो नील वर्ण वाले दस दलों के एक कमल के सामान है तथा मणि के सामान चमकने वाला है | मणिपुर चक्र के प्रत्येक दल पर बीजाक्षर हैं | चक्र के मध्य में उगते सूर्य की प्रभा के सामान तेजस्वी त्रिकोण रूप अग्नि क्षेत्र है , जिसकी तीन भुजाओं पर स्वस्तिक है | इस अग्नि त्रिकोण जोकि भैंसे पर आरूढ़ है, के बीच में चक्र का मूल बीज रं स्थित है | त्रिकोण के ऊपर चक्र के देवता सिन्दूरी वर्ण में रूद्र एवं श्याम वर्णा देवी लाकिनी अवस्थित हैं | वृषभ पर आरूढ़ रूद्र देव के दोनों हाथ वर और अभय मुद्रा प्रदर्शित कर रहे हैं | लाकिनी देवी त्रिनेत्री हैं व् त्रिमुखी हैं एवं उनकी चार भुजाएं , चार वेदों के ज्ञान हैं तथा वे पीत वस्त्रधारी हैं और साधक का कल्याण करने वाली हैं | मणिपुर चक्र की जाग्रति के साथ साधक में जहाँ विवेक और श्रद्धा उपजती है , वहीँ उसके सभी पापों का समन भी हो जाता है | उसके ह्रदय में दया , ममता , करुणा का उदय होने लगता है | तब उस पर सांसरिक दोष का कोई प्रभाव व्याप्त नहीं हो पाता है | इस चक्र के जाग्रत होने पर व्यक्ति पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त कर लेता है और देवत्व की तरफ कदम रखने की ओर अग्रसर हो जाता है | इस चक्र के पश्चात ही उसमें दैवीय गुणों का प्रस्फुटन प्रारम्भ हो जाता है | चित्त निर्मल एवं दोषमुक्त हो जाने से उसकी वाणी ओजस्वी हो जाती है | उसके शरीर के चारों ओर की आभा बढ़ जाती है , उसके ह्रदय में शान्ति व्याप्त हो जाती है और उसे ध्यान की प्रथमावस्था प्राप्त होती है | मणिपुर चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति को ध्यान का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है |
दल के बीजाक्षरों से सम्बंधित उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं : –
डं : इस दल के जाग्रत होने पर नाभि प्रदेश की नाड़ियाँ चैतन्यता को प्राप्त होती हैं |
ढं : नाभि मानव शरीर के यौगिक बल का केंद्र है, इस चक्र के द्वितीय बल के जाग्रत होने पर व्यक्ति को योग बल का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होता है | वह लम्बे समय तक एक ही आसन पर बैठने लग जाता है , श्वांस पर उसका नियंत्रण हो जाता है , तथा उसका शरीर पर भी नियंत्रण हो जाता है |
णं : भू तत्व का लोप होने से और इस दल के जागरण से वह आकाश मार्ग से गमन करने की क्षमता प्राप्त कर लेता है |
तं : चतुर्थ दल के जाग्रत होने पर उसे जल गमन करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है |
थं : इस दल के जाग्रत होने पर वह स्वयं को अदृश्य बना सकता हैऔर वापस पुनः दृष्टिगत हो सकता है |
दं : भूमि की सतह पर अत्यंत तीव्र गति से चलने की और मीलों लंबा सफर क्षणों में तय कर लेने की क्षमता इस दल के जाग्रत होने से प्राप्त हो जाती है |
धं : पशु पक्षी तथा पेड़ पौधों से वार्तालाप अर्थार्त उनकी भाषा को समझने का ज्ञान इस दल से ही प्राप्त होता है |
नं : इस दल के जागरण से व्यक्ति सर्दी , गर्मी , वर्षा आदि से प्रभावित नहीं हो पाता है तथा प्राकृतिक विपदाओं एवं ऋतुओं के प्रभाव में हस्तक्षेप कर सकता है |
पं : इस दल के जागरण से व्यक्ति में मानव कल्याण की भावना के गुण एवं कुशल मार्गदर्शक व् नेतृत्व के गुण विकसित हो जाते हैं |
फं : इस दल के जाग्रत होने पर ध्यान की क्रिया प्राप्त हो जाती है और वह आध्यात्मिक उन्नति के लिए तैयार हो जाता है | मन एकाग्र हो जाने पर ध्यान सिद्ध होने पर प्राणों में गतिशीलता आ जाती है | कुण्डलिनी में ऊर्जा जाग्रत हो जाती है | यह आवश्यक नहीं कि कुण्डलिनी जाग्रत हो जाने के पश्चात वह ऊपर की ओर बढ़ती रहे और सभी चक्रों को बेधती हुई मस्तिष्क के सहस्त्रार में पहुँच जाए | किसी की कहीं रुक जाती है तो किसी की कहीं | किसी की जाग्रत हो जाने के पश्चात पुनः सुप्त भी हो जाती है | जो साधक पूर्ण निष्ठा , लग्न और निःस्वार्थ भावना से साधना में रहता है उसी की शक्ति मस्तिष्क तक पहुँचती है और पूर्णता को प्राप्त होती है |