कुण्डलिनी शक्ति :- स्वाधिष्ठान चक्र :
स्वाधिष्ठान चक्र : रंग : नारंगी , सम्बन्ध तत्त्व : जल, प्रभाव : इच्छाएं , बीज मंत्र : बं | यह नाभि से लगभग तीन इंच नीचे की तरफ होता है | मूलाधार चक्र से थोडा ऊपर पेडू के समीप इसका स्थान है | यह काम शक्ति का मुख्य केंद्र है , इसके अधिपति जगत के पालनकर्ता विष्णु जी हैं | यह चक्र मूलाधार से ऊपर लिंग मूल के पीछे स्थित होता है | यहाँ स्थित शक्तियों को सत्य कहा गया है , जो पुरुषों में वीर्य और स्त्रियों में रज के रूप में विधमान होकर लिंग तथा योनी प्रदेश की ओर प्रवाहित रहता है | स्त्री और पुरुष का यही सत्य स्खलित होकर अधोगामी बनता है , परन्तु यही सत्य यदि अधोगामी होने के स्थान पर किसी प्रकार से ऊर्ध्वगामी कर दिया जाए तो नवीन सर्जन की यह क्रिया बाहर घटित न होकर मनुष्य के भीतर ही घटित होने लगती है | सिन्दूरी रंग में छः दलों वाला लिंग मूल में दूसरा स्वाधिष्ठान चक्र माना गया है | जिसके दलों पर बं से लं तक के अक्षर बिंदु सहित विधुत की चमक के सामान दमकते हैं | इस चक्र की स्थिति सुषुम्ना के मध्य मानी गयी है , जिसके दल रूप षडक्षर बं , भं , मं , यं , रं , लं, हैं | यहाँ में स्पष्ट कर रहा हूँ कि यह पध् दलों के ऊपर लिखे हुये अक्षर नहीं हैं अपितु यह सड्क्षर ही पध् दलों के सामान चक्र में सुशोभित हैं | स्वाधिष्ठान जल तत्त्व प्रधान चक्र है जबकि मूलाधार भूतत्व प्रधान चक्र है | तत्व दृष्टी से देखा जाए तो प्रत्येक अणु में स्पंदन या कम्पन स्वाभाविक रूप से होता है एवं जल तत्व में यह स्पंदन भू तत्व की अपेक्षा अधिक होता है | जब यह चक्र जाग्रत होता है तो मानव में काम वासना अत्यधिक तीव्रता से बढती है तब अपने आपको नियंत्रित करने के लिए उसे प्राणायाम की आवश्यकता पड़ती है | यह चक्र मलाकांत तमः प्रधान अधो प्रदेश में स्थित होता है परन्तु ब्रहमचर्य साधन का उपयोग कर सात्विकता पैदा कर इस स्थान पर दिव्य वैराग्य युक्त भावना का प्रकाश डालकर यदि स्वाधिष्ठान मन्त्र का गुंजरन किया जाए तो साधक काम विजयी बन सकता है | स्वाधिष्ठान जाग्रत होने के साथ ही साधक के व्यक्तित्व में आकर्षण और चुम्बकत्व व्याप्त हो जाता है | भले ही वह किसी से बात करे या न करे परन्तु लोग उसे सम्मान की दृष्टी से देखने लगते हैं , उससे बात करने को लालायित रहते हैं | साथ ही उसकी वाणी में मधुरता आ जाती है तथा उसकी तर्क शक्ति भी प्रखर हो जाती है , ऐसा व्यक्ति किसी से वाद विवाद में सामान्यतय परास्त नहीं होता है | स्वाधिष्ठान जब पूर्ण जाग्रत हो जाता है तब साधक को जल तत्व पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है | इस चक्र में छः दल होते हैं , बं , भं , मं , यं , रं , लं , तथा इसका वर्ग सिन्दूरी है | षड्दल के भीतर अर्धचन्द्राकार जलीय क्षेत्र में वरुण के बीजाक्षर , ब , को धारण किये हुये मकर है | यह तत्व जल प्रधान है अतः इसके देव वरुण हैं | ब के ऊपर लगा बिंदु है जिसमें विष्णु देव विराजमान हैं | उनके बगल में इस चक्र की अधिष्ठात्री देवी राकिणी हैं | षट्चक्र निरूपण में बताया है की राकिणी नीले कमल पर आसीन श्याम वर्णा हैं | दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित आयुधों को लिए हुये अपनी दोनों भुजाओं को ऊपर किये हैं | इस चक्र के छः दल जिनके जाग्रत होने पर निम्न उउपलब्धियां साधक को प्राप्त होती हैं |
बं : यह चक्र का पहला बीज है जिसके द्वारा साधक को गृहस्थ जीवन में पूर्ण सुख प्राप्त होता है तथा दाम्पत्य जीवन सुखमय होता है | शरीर की नपुंसकता , चाहे स्त्री हो या पुरुष समाप्त हो जाती है | इस दल की जागृति से शरीर का सत्य अर्थार्त वीर्य या रज साधक को पूर्ण पौरुष या पूर्ण स्त्रीत्व प्रदान करता है |
भं : इस दल के जाग्रत होने पर व्यक्ति को मनोनुकूल संतान उत्पन्न करने की क्षमता प्राप्त होती है | संतान तो सभी उत्पन्न कर लेते हैं , लेकिन सामान्यतय उसी संतान को पैदा करने के लिए विवश होते हैं जो स्वतः आ जाए चाहे वह दुष्टात्मा हो या पुण्यात्मा अथवा लड़का हो या लड़की |
मं : तीसरे दल के जाग्रत होने पर साधक निर्भीक एवं साहसी बं जाते है | फिर जीवन में कैसी भी बाधा आ जाए वह पूर्ण पौरुष के साथ उसका डटकर मुकाबला करने की शक्ति प्राप्त कर लेता है और उन पर विजय प्राप्त करता है | यह उसकी आंतरिक शक्ति के कारण होता है फिर उसका शारीरिक डील डौल कैसा भी हो एवं कद कैसा भी हो वह महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है |
यं : चौथे दल से व्यक्ति के अन्दर ब्रह्मचर्य शक्ति उद्भव होता है | ब्रह्मचर्य का “ काम भावना का परित्याग “ कदापि अर्थ नहीं है , अपितु ब्रह्मचर्य का अर्थ काम भावना पर पूर्ण नियंत्रण एवं एक सुनियोजित विवाहित जीवन व्यतीत करना है |
रं : पांचवे दल के जाग्रत होने पर व्यक्ति का वीर्य शुद्ध सत्व रूप में परिवर्तित हो जाता है | इससे उसका पूरा शरीर कान्तिमान हो जाता है और उसके व्यक्तित्व में एक चुम्बकत्व और आकर्षक व्याप्त हो जाता है |
लं : छठे दल से व्यक्ति के भीतर भौतिक संसार के किसी भी कार्य को सुचारू रूप से संपन्न करने एवं पूर्ण दक्षता के साथ संपादित करने की क्षमता का विकास हो जाता है |
संक्षेप में देखा जाए तो स्वाधिष्ठान चक्र के जाग्रत होने से व्यक्ति का भौतिक जीवन एकदम संवर जाता है एवं मजबूत हो जाता है | उसकी भौतिक इच्छाएं व् कामनाएं पूर्ण होने लगती हैं